Wednesday, June 11, 2014

ये नज़र अब से फितरती

वो तो बेखबर हैं, की उनका ख्याल 
अब तक हममें ताज़ा है |
लेकिन इस बेबसी में, 
पुरानें दिनों जैसी ताजगी " अब कहाँ " ||

हम तो मशरुफियत में भी 
तन्हाई का..शमा जलाएं फ़िरते है, 
लेकिन इंतजार की डोर थामतें हाथ, 
अब कहीं नज़र नहीं आतें |

अब तो हमें नजरअंदाज होना भी कबूल है, 
जो उनकी ये नज़र अब से फितरती हो |

सोच रहा हूँ, बहुत कुछ कह चूका...
लेकिन इसें भी अनसुना हीं कर दों,
अगर इसमें लिखा
" कुछ भी सिर्फ और सिर्फ, मेरे मतलब का हों " |


6 comments:


  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल शुक्रवार (13-06-2014) को "थोड़ी तो रौनक़ आए" (चर्चा मंच-1642) पर भी होगी!
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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    1. धन्यवाद रूपचन्द्र शास्त्री मयंक ज़ी |

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  2. . बहुत ही उत्‍कृष्‍ट अभिव्‍यक्ति ... आभार ।

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    1. धन्यवाद संजय भास्‍कर ज़ी |

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